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कलिकँनी ??

कुछ कहना है कुछ करना है!
कुछ कहना है कुछ करना है!
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मुझे आज भी बचपन की वह घटनाएँ याद है जब पहली बार हमने होश सम्हाला था , रात को सोते समय हम भाई बहनो को , कहानी सुनाने की जिद पर माँ ने कभी हमे राजा रानी , भूत पिशाच व अन्य कपोल कल्पित घटनाओ पर आधारित कहानियाँ नही सुनायी ।एक बार जब वह रामायण को धारावाहिक रुप देकर प्रस्तुत करती तो वर्षो वरष हम सब उसी मे खोये रहते थे ।
जब कुछ बड़े हुए तो उनका ये जानने व समझने का हमेशा प्रयास रहता कि हम स्कूल से आने के उपरान्त कहाँ थे किसके साथ थे और क्या कर रहे थे , पिताजी के हमेशा बाहर रहने के कारण उनकी हम लोगो के प्रति कुछ अधिक ही जिम्मेवारी रहती थी उन दिनो जबकि ग्रामीण परिवेश मे पर्दा प्रथा चरम पर था उन्होने उसकी मर्यादा को रखते हुए हम लोगो के बाहरी दुनियाँ की प्रतिपल खबर रखी , जब कभी कही आस पास के माहौल मे कुछ अप्रिय घटना ( अन्य लोगे के झगड़े)होती वे घर पर रहकर ही किसी न किसी तरीके से हमे बुलवा लेती जिससे कि हम उन घटनाओ से दूर रह सके …जब कुछ बड़े हुए और शारिरिक विकास हुआ गँवई सँस्क्रति व परिवेश के वशीभूत यदा कदा हम लोगो के व्दारा यदि उनके स्थापित आदर्शो के अतिक्रमण होने का उनको अँदेशा होता तो वे यथाशक्ति उसका विरोध करती और हमे मना कर के ही दम लेती इसके लिए वह पड़ोसियो का भी सहयोग लेने से हिचकती न थी , एक दिन की बात है ऐसे ही मनोरँजन के उद्देश्य से मैने एक कपड़े मे कुछ छिपाके उनसे कहा कि ये तमँचा फलाँ पड़ोसी ने रखने को दिया है ये सुनकर वे बहुत जोर से चीखी ये लगा कि जैसे भूकम्प आ गया हो हम वह नाटक दो मिनट भी नही कर पाये और कपड़े को खोलकर दिखाया कि इसमे तो कुछ भी नही है । अपने आदर्शो व उसूलो से उन्होने कभी समझौता नही किया आज इतने दिनो बाद भी उन्होने ऐसी ही इमेज बना के रखी है जिसका हमे आज भी खौफ रहता है ।
किशोरावस्था नये पेड़ की उस मुख्य तने की तरह होता है जब उसे किसी के मार्गदर्शन रुपी सहारे की महती आवश्यक्ता होती है हम उसकी महत्ता बढ़ाने ,और भव्यता देने के लिए खाद पानी तो देते ही है समय समय पर उसके विकास मे बाधक उन डालियो को काटते छाँटते भी है जो उसके ही अभिन्न अँग होते है ।
आज जबकि बलात्कार रुपी राक्षस हमारे किशोर व युवा समाज के गहरे जड़ो पे अपना साम्राज्य फैलाते हुए हमारे सभ्य व सुसँस्क्रत समाज की अवधारणा पे नित्यप्रति कुठाराघात करता जा रहा है एक ” माएँ ” ही उम्मीद की वह रोशनी है जो यदि चाह ले तो इस बुराई रुपी राक्षस का जड़ से उन्मूलन कर सकती है ।
आज उन माँओ को प्राथमिकता से ये पहल करनी चाहिए जिनके घरो मे ये बुराइयाँ उनकी जानकारी मे फल फूल रही है आज उन पत्नियो को भी अपने उन पतियो का सार्वजनिक विरोध करना चाहिए जो कही भी इन गतिविधियो मे लिप्त है …ऐसा नही है कि अपने पुत्र और अपनी पतियो की ऐसी फितरत से वे बहुत दिनो तक अँजान रहती हो क्योकि इन वीभत्स घटनाओ को अँजाम देने से पूर्व वह छोटी मोटी ऐसी हरकते आये दिन किया करते है जिसे छिपाया नही जा सकता यदि उस समय पुत्रमोह या पतिप्रताड़ना के भय से हमारी माँ बहने ऐसी हरकतो पे पर्दा डालते जायेगे तो दिल्ली जैसी घटना आम घटना बनती रहेगी और हम सब इसे सहने और इसमे रहने को आदी हो जायेगे ।
सख्त कानून बनाकर दण्ड तो दिया जा सकता है लेकिन बिना उर्पयुक्त प्रयास किए इसे रोक पाना मुश्किल है ।जब हमारे पास उन परिस्थितयो पर विराम लगाने के लिए पहले से ही तमाम सार्थक व आदर्श उपाय मौजूद है तो हम दण्ड देने के विकल्प पर ही क्यो अड़े हुए है जबकि इसमे दोनो पक्षो को खोने के अलावा कुछ भी हासिल नही होता ।
आज जरुरत है ऐसे ही जनजागरण की जिससे ये सँदेश घर घर पहुँचे कि हम सब आज और अभी से अपने अपने घरो को सम्हाले और रावण के रुप मे छिपे ढके रामसिहो को पहचानते हुए उन्हे सुधारे , यधपि सामाजिक वजहो से टूटते परिवारो के एकाकीपन के कारण ये काम थोड़ा मुश्किल है फिर भी अवसर लगाकर माएँ इस ओर ध्यान दे सकती है ।
किशोरावस्था से ही उन बालको पर ये दबाव बनाया जाय कि उनके दोस्तो की सँख्या कम हो और जो दोस्त हो उनसे ब्यक्तिगत रुप से सम्पर्क भी रखा जाय ।जरुरत से अधिक देर तक बाहर रहने के कारणो पर गम्भीरता से ध्यान दिया जाय , पूछताँछ के दौरान यदि सन्तोषजनक उत्तर न दे झिझके या फिर अत्याधिक दबाव मे खीझे तो समझना चाहिए कि कही न कही कुछ गड़बड़ है इस स्थिति मे बहुत सूझ बूझ की जरुरत है पहले तो हमे उसको विश्वास मे लेते हुए इष्ट मित्रो का सहयोग लेकर समझाना चाहिए । अगर आप समय रहते अपने बच्चो के साथ मित्रवत वातावरण बना कर उसे विश्वास मे ले लेते है तो इससे अच्छा कुछ भी नही वह आपके साथ उन बुराइयो को शेयर तो करेगा ही उन्हे छोड़ भी देगा ।
समय पर ध्यान न देने व लापरवाही बरतने के कारण जो बच्चे व बड़े , ” घाघ “हो जाते है तो आज की परिस्थितियो मे उन्हे जिन्दगी भर ढोना उचित नही तब उन्हे उनके हाल पर छोड़ देना चाहिए वे परिस्थितियो से जूझते हुए सुधर भी सकते है और इसके बाद भी ये लगे कि ये दिल्ली जैसे शैतान बनने वाले है तो आज के परिवेश मे पुलिस को सौँपकर इनका सामाजिक बहिष्कार कर देना चाहिए कम से कम उनके “पतित” होने के उपरान्त तुम्हे कोई “कलँकिनी ” तो नही कहेगा क्योकि तब उनके बुरे कर्मो की तुम भागीदार नही रहोगी ।
समाज सरकार व स्वयँसेवी सँस्थाओ को भी आगे आकर कुछ ऐसी ही पहल करनी होगी और ऐसे असमाजिक तत्वो को चिन्हित करते हुए उन पर सामूहिक रुप से कारगर दबाव भी बनाना चाहिए ।
यदि हमे आदर्श सभ्य व भयमुक्त समाज की स्थापना करनी है तो हम सबको मिलकर कुछ ऐसी ही पहल करनी होगी ।

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